October 13, 2024

पहाड़ से गायब हो रहे कौव्वे पितृपक्ष में दर्शन भी हुए दुर्लभ

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पहाड़ से गायब हो रहे कौव्वे पितृपक्ष में दर्शन भी हुए दुर्लभ

देहरादून-उत्तराखंड। कौव्वा देवभूमि उत्तराखंड की लोक सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा है। पर्वों, त्योहारों और धार्मिक मान्यताओं में कौव्वे का बड़ा महत्व है। घी संग्राद हो या श्राद्ध पक्ष दोनों कौवे के बिना अधूरे माने जाते हैं। आज पितृ पक्ष संपन्न हो रहा है, लेकिन पहाड़ में पितृ पक्ष का प्रसाद ग्रहण करने के लिए लोगों को एक भी कौव्वा नहीं दिख रहा है। कौव्वे की झलक तक नहीं दिखने को पितृ दोष के रूप में देखा जा रहा है।वहीं जीव वैज्ञानिक पहाड़ से कौव्वे के विलुप्त होने के पीछे उसके आवास और भोजन की कमी तथा प्रदूषण की वजह से इनकी प्रजनन क्षमता भी काफी घट जाने को मुख्य कारक मान रहे हैं। 17 सितंबर से पितृ पक्ष शुरू हुआ था, जो आज दो अक्तूबर बुधवार को संपन्न हो रहा है। इस दौरान सनातन धर्म के अनुयायियों ने अपने-अपने पितरों को तर्पण दिया। श्राद्ध में कौव्वों को भोग लगाने की पुरानी मान्यता है। श्राद्ध में छतों पर या आंगन में भोजन प्रसाद रखकर जिमाने के लिए कौव्वों का आह्वान किया जाता है। लेकिन घंटों इंतजार करने के बाद भी एक भी कौव्वा नजर ही नहीं आ रहा है। जबकि तीन-चार साल पहले तक पितृ पक्ष में कौव्वे स्वयं ही प्रसाद ग्रहण करने आया करते थे।इलाके के बुजुर्ग पंडित रोशन लाल गौड़ ने बताया कि कौव्वों द्वारा भोजन प्रसाद ग्रहण कर लेने पर पितर संतृप्त (संतुष्ट) हो जाते हैं और उन्हें दक्षिण लोक में भी भोजन-पानी प्राप्त हो जाता है, ऐसी पुरानी मान्यता है लेकिन अब पितृपक्ष में कौवे नजर ही नहीं आ रहे हैं। इस वजह से ग्रामीण क्षेत्र में लोग अनिष्ट से आशंकित हैं। ग्राम मासौं के बुजुर्ग रेवाधर थपलियाल और सतेश्वरी देवी ने बताया कि श्राद्ध पक्ष में कौव्वों के लिए प्रसाद के रूप में पूड़ी रखी, लेकिन एक भी कौवा नहीं आया। जबकि ग्रामीण कौवे को काले कौव्वा, काले कौव्वा पुकारकर बुलाते रहे।
राजकीय महाविद्यालय लैंसडौन में प्राणी विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डॉ. मोहन कुकरेती ने बताया कि खेती की जमीन लगातार सिकुड़ने और मानव जनित प्रदूषण बेहिसाब बढ़ने से कौव्वे के प्राकृतिक आवास पर संकट पैदा हो गया है। बोले, लगातार हानिकारक रसायनोंयुक्त खाना खाने से कौव्वों की प्रजनन क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इससे उनकी आबादी तेजी से घट रही है।गढ़वाल विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान विभाग के एचओडी/पक्षी विशेषज्ञ प्रो. एमएस बिष्ट का कहना है कि पहाड़ से कौवा लगभग विलुप्त हो गया है। भोजन-आवास की कमी मुख्य कारक हैं। कहा, कौवा वैसे तो सर्वहारा है, लेकिन कीड़े-मकोड़े उसका प्रिय भोजन हैं। पहाड़ों में हो रहे पलायन, खेती के बंजर होने, पशुपालन नहीं होने, विदेशी खर-पतवार फैलने और फसल चक्र टूटने से कौवों को मनमाफिक कीड़े-मकोड़े नहीं मिल पा रहे है। पहाड़ में घास के परखुंड और कई प्रजाति के पेड़ों के भी नहीं होने से अब कौव्वे घोंसले भी नहीं बना पा रहे हैं। प्रो. बिष्ट ने बताया कि पहाड़ पर घरेलू और जंगली दो प्रजातियों के कौव्वे मिलते हैं। घरेलू कौव्वे का गला स्लेटी होता है जबकि जंगली कौव्वा थोड़ा बड़ा और पूरा काला होता है।प्रो. एमएस बिष्ट ने कहा कि पक्षी हर जलवायु में स्वयं को ढालने में माहिर होते हैं। लेकिन पहाड़ों से कौवों का विलुप्त होना पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करेगा। इसके दुष्प्रभाव दशकों बाद देखने को मिलेंगे।

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