महर्षि वाल्मीकि जी की आज जयंती
प्रयागराज के महर्षि वाल्मीक
महर्षि वाल्मीकि जी की आज जयंती है। ऐसे तो उनके देश भर में कई आश्रम बताए जाते हैं किंतु शोध के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म प्रयागराज के यमुनापार क्षेत्र में हुआ। यहीं पर उनके मुख से कविता प्रस्फुटित हुई थी।यह प्रथम काव्य प्रयागराज की धरती पर फूटा । मेरा मानना है कि गायकी भी इन्हीं की देन थी।
अगर इन्हें कहा जाए कि यह प्राचीनतम इतिहास लेखक है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। महर्षि वाल्मीकि नाम के कई व्यक्ति भी हो सकते हैं, लेकिन रामायण को रचने वाले महर्षि वाल्मीकि सर्वाधिक प्रख्यात है।
बाल्मीकि रामायण में विश्व भर के विद्वानों ने बहुत शोध किया और उन्होंने यह पाया कि महर्षि वाल्मीकि का भौगोलिक ज्ञान बहुत ही उम्दा था। बाल्मीकि रामायण में रावण द्वारा सीता हरण के बाद उनका पता लगाने के लिए अंगद द्वारा चारों दिशाओं में दूत भेजे गए। उस समय जिस तरह से वनस्पति और भौगोलिक स्थितियों का वर्णन किया गया था वह आज भी विद्यमान है। थोड़े नाम परिवर्तन के साथ क्षेत्र व वनस्पतियां आदि आज भी वैसी ही है।
2 साल पहले मैंने भी भगवान राम के प्रयागराज से चित्रकूट की ओर प्रस्थान करने वाले रास्ते का परीक्षण किया। तो पाया कि यमुना से पार उतरने , वनस्पतियों का वर्णन जैसा उन्होंने रामायण में किया था आज भी लगभग वैसे ही भौगोलिक स्थिति है।
महर्षि वाल्मीकि के संबंध में क्रौंच पक्षी के बध की घटना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी के साथ लक्ष्मण का गंगा पार करके तमसा के किनारे वाल्मीकि आश्रम में सीता को छोड़ने की घटना भी अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इन दोनों से वाल्मीकि जी के बारे में काफी पता चलता है।
वाल्मीकि जी ने अपने बारे में जो लिखा है, इसका परीक्षण करने के बाद यह समझ में आता है कि दोनों घटनाएं लगभग एक ही स्थान पर है। हो सकता है ,थोड़ा परिवर्तन हो। किंतु यह स्पष्ट है कि गंगा और तमसा के मिलन स्थल पर नहीं है।
अधिकतर विद्वान यह मानते हैं कि वाल्मीकि का आश्रम गंगा और तमसा के संगम पर था। प्राप्त जानकारी के अनुसार मैने जो विश्लेषण किया उसके अनुसार तमसा जब पत्थर पर चलती हैं इस स्थान के आसपास ही इनका आश्रम था। ना कि गंगा और तमसा के संगम पर। जैसा बाल्मीक जी सीता को स्नान के लिए बोलते हैं। इस घटना के विश्लेषण से दो बातें स्पष्ट है कि वह सीता को गंगा में स्नान करने के लिए नहीं बोलते । दूसरी तमसा का जल इतना स्पष्ट है कि मछलियां भी दिखती है ।
इस संबंध में प्रोफेसर रास बिहारी दुबे जबलपुर ने अपनी किताब में उनका आश्रम तमसा और गंगा के संगम पर स्थापित किया है किंतु कुछ बिंदु ऐसे हैं जिनका वह जवाब नहीं दे पाए । ऐसी दशा में यह सर्वाधिक प्रमाणित प्रतीत होता है कि यमुनापार के गौरा ग्राम (जहां तमसा और बेलन मिलती हैं) इसके आगे दोनों नदियां एक होकर चलती हैं। यह रास्ता कोहढ़ार करछना तक है। यहां वह कई स्थानों पर पत्थर पर चलती हैं। इसी के आसपास हो सकता है। नदी जब पत्थर पर चलती है तो उसका जल स्पष्ट होता है ना की मिट्टी में।
मेरा ऐसा मानना है कि गायकी का प्रथम स्वरूप ललित कलाओं के रूप में महर्षि वाल्मीकि ने ही शुरू किया था। इस स्थान पर क्रौंच पक्षी भी मिलते हैं । साथ ही निषादों की बड़ी बस्ती भी मिलती है। आज भी आप तमसा के तटीय क्षेत्र में आधुनिक घर बिजली के तार हटा दें तो आपको उस काल की अनुभूति होती है।
लव कुश द्वारा सीता के पारित्याग की कहानी, गायन के जरिए भगवान राम के दरबार में आपने भी फिल्मों में देखी होगी। यही ज्ञात गायकी का प्रथम स्वरूप प्रतीत होता है। इस क्षेत्र में इकतारा लेकर लोग गायन किया करते थे। मंडली गांव-गांव घूमती थी। धीरे-धीरे यह कला बुंदेलखंड क्षेत्र में सरकती चली गई। वहां पर अभी भी थोड़े बदलाव के बाद यह जिंदा है। लेकिन इसके मूल स्थान पर अब लगभग खत्म सी हो गई है।
सरकार को, कला प्रेमियों को, कला के आदि गुरु महर्षि वाल्मीकि की स्मृति में कुछ करना चाहिए। मैं भी सरकारी सिस्टम को प्रेरित करके कुछ सिफारिशें भेजी हैं। वाल्मीकि आश्रम के नाम पर पैसा भी आया लेकिन हमें अपने महापुरुषों को पत्थरों में नहीं सजीवता में उनकी कला, ज्ञान में जिंदा करना होगा।
(साभार- “*वीरेन्द्र पाठक की दृष्टि में तीर्थराज से प्रयागराज तक*” पुस्तक तक से।)